मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला और ईरान से आए नादिर शाह का दिल्ली पर हमला

Mughal Ruler Muhammad Shah Rangeela and Iran's Nadir Shah's Attack on Delhi

कितना रंगीला था मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला? 

12 मई 1739 की शाम. दिल्ली में ज़बरदस्त चहल-पहल, शाहजहांनाबाद में चरागां और लाल क़िले में जश्न का समां है. ग़रीबों में शरबत, पान और खाना बांटा जा रहा है. फ़कीरों को झोली भर भर कर रुपए दिए जा रहे हैं. 

आज दरबार में ईरानी बादशाह नादिर शाह के सामने मुग़लिया सल्तनत के तेरहवें ताज़दार मोहम्मद शाह बैठे हैं लेकिन इस वक़्त उनके सर पर शाही ताज नहीं है. 

क्योंकि नादिर शाह ने ढाई महीने पहले उनसे सल्तनत छीन ली थी. 

56 दिन दिल्ली में रहने के बाद अब नादिर शाह के वापिस ईरान लौटने का वक़्त आ गया है और अब वो हिंदुस्तान की बागडोर दोबारा मोहम्मद शाह के हवाले करना चाहते हैं. नादिर शाह ने सदियों से जमा मुग़ल खजाने में झाड़ू फेर दी है और शहर के तमाम अमीर और प्रभावशाली लोगों की जेबें उलटा ली हैं. लेकिन उसे दिल्ली की एक तवायफ़ नूर बाई ने, जिस का ज़िक्र आगे चलकर आएगा, ख़ुफ़िया तौर पर बता दिया है कि ये सब कुछ जो तुम ने हासिल किया है, वो उस चीज़ के आग़े कुछ भी नहीं है जिसे मोहम्मद शाह ने अपनी पगड़ी में छुपा रखा है. नादिर शाह घाघ सियासतदां और घाट-घाट का पानी पिए हुए था. उन मौक़े पर वो चाल चली जिसे नहले पर दहला कहा जाता है. उस ने मोहम्मद शाह से कहा, "ईरान में रस्म चली आती है कि भाई ख़ुशी के मौक़े पर आपस में पगड़ियां बदल देते हैं, आज से हम भाई-भाई बन गए हैं, तो क्यों न इसी रस्म को अदा किया जाए." मोहम्मद शाह के पास सर झुकाने के अलावा कोई चारा नहीं था. नादिर शाह ने अपनी पगड़ी उतार कर उसके सर रखी, और उस की पगड़ी अपने सर और यूं दुनिया का मशहूर हीरा कोहेनेूर हिंदुस्तान से निकल कर ईरान पहुंच गया.

रंगीला बादशाह

इस हीरे के मालिक मोहम्मद शाह अपने परदादा औरंगज़ेब आलमगीर के दौरे हुक़ूमत में 1702 में पैदा हुए थे. उनका पैदाइशी नाम तो रोशन अख़्तर था, हालांकि 29 सितंबर 1719 को राजगुरु सैय्यद ब्राद्रान ने उन्हें सिर्फ़ 17 बरस की उम्र में सल्तनत-ए-तैमूरिया के तख़्त पर बिठाने के बाद अबु अल फ़तह नसीरूद्दीन रोशन अख़्तर मोहम्मद शाह का ख़िताब दिया. ख़ुद उनका तखल्लुस 'सदा रंगीला' था. इतना लंबा नाम कौन याद रखता, इसलिए जनता ने दोनों को मिलाकर मोहम्मद शाह रंगीला कर दिया और वो आज तक हिंदुस्तान में इसी नाम से जाने और माने जाते हैं.

मोहम्मद शाह के जन्म के वक़्त औरंगज़ेब आलमगीर ने हिंदुस्तान में एक ख़ास क़िस्म का कट्टर इस्लाम लागू कर दिया था और उसका सबसे पहला निशाना वो कलाकार बने जिनके बारे में ये राय थी कि वो इस्लामी उसूलों का पालन नहीं करते.  इसकी एक दिलचस्प मिसाल इतालवी यात्री निकोलो मनूची ने लिखी है. वो कहते हैं कि औरंगज़ेबी दौर में जब संगीत पर पाबंदी लगी तो गवैयों और संगीतकारों की रोज़ी रोटी बंद हो गई. आख़िर तंग आकर एक हज़ार कलाकारों ने जुमे के दिन दिल्ली की जामा मस्जिद से जुलूस निकाला और वाद्य यंत्रों को जनाज़ों की शक्ल में लेकर रोते पीटते गुज़रने लगे. औरंगज़ेब ने देखा तो हैरतज़दा होकर पुछवाया, "ये किसका जनाज़ा लिए जा रहे हो जिसकी ख़ातिर इस क़दर रोया पीटा जा रहा है?" उन्होंने कहा, "आप ने संगीत का क़त्ल कर दिया है, उसे दफ़नाने जा रहे हैं." औरंगज़ेब ने जवाब दिया, "क़ब्र ज़रा ग़हरी खोदना." 

भौतिकी का नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. यही नियम इतिहास और मानवीय समाज पर भी लागू होता है कि जिस चीज़ को जितनी सख़्ती से दबाया जाता है वो उतनी ही ताक़त से उभरकर सामने आती है. इसलिए औरंगज़ेब के बाद भी यही कुछ हुआ और मोहम्मद शाह के दौर में वो तमाम कलाएं अपनी पूरी ताक़त के साथ सामने आ गईं जो उससे पहले दब गईं थीं.

दो विपरीत छोर

इसकी सबसे दिलचस्प गवाही 'मरक़ए दिल्ली' से मिलती है. ये एक किताब है जिसे मोहम्मद शाह के दरबारी दरगाह क़ली ख़ान ने लिखा था और उसमें उन्होंने लफ़्ज़ों से वो तस्वीरें खींची हैं कि उस ज़माने की जीती जागती सांस लेती दिल्ली आंखों के सामने आ जाती है. इस किताब के हवाले से एक अजीब बात सामने आती है कि सिर्फ़ बादशाह ही नहीं, दिल्ली के लोगों की ज़िंदगी भी पेंडुलम की तरह दो छोरों के बीच झूल रही थी. एक तरफ़ तो वो ऐश-ओ-आराम से लबरेज़ ज़िंदगी जी रहे थे और जब इससे उकता जाते तो औलियाओं के हाथ थाम लेते थे. और जब वहां से भी दिल भर जाता तो दोबारा फिर वहीं लौट आते.

'मरक़ए दिल्ली' मे आंहज़ोर के क़दम शरीफ़, क़दम गाह हज़रत अली, निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा, कुतुब साहब की दरग़ाह और दर्जनों दूसरे स्थानों का ज़िक्र किया है जहां उनके मानने वालों की भीड़ रहती थी. किताब में लिखा है कि यहां 'औलिया कराम की इनती क़ब्रें हैं कि उनसे बहार भी जल उठे.' एक तरफ़ तो यहां ग्यारहवीं शरीफ़ सारी दिल्ली में बड़ी धूम धाम से होती है, झाड़-फ़ानूस सजाए जाते हैं और रोशन महफ़िलें होती हैं. दूसरी ओर इस दौरान संगीत को भी ख़ूब बढ़ावा मिला. दरग़ाह ने ऐसे कई संगीतकारों का ज़िक्र किया है जो शाही दरबार से संबंध रखते थे. उनमें अदा रंग और सदा रंग सबसे नुमाया हैं जिन्होंने ख़्याल-तर्ज़-ए-गायकी को नया मु काम दिया जो आज भी माना जाता है. 

मरक़ए दिल्ली में कहा गया है, "सदा रंग जैसे ही अपने नाख़ून के मज़राब से साज़ के तार छेड़ता है दिलों से बेख़्तियार होकर निकलती है और जैसे ही उस के गले से आवाज़ निकलती है, लगता है बदन से जान निकल गई." उसी दौर की एक बंदिश आज भी गाई जाती है, 'मोहम्मद शाह रंगीले सजना तुम बिन कारी बदरया, तन ना सुहाए.' 'मोहम्मद शाह रंगीले सजना, तुम्हारे बिना काले बादल दिल को नहीं भाते.' दरग़ाह क़ुली ने दर्जनों कव्वालों, ढोलक नवाज़ों, पिखलोजियों, धमधी नवाज़ों, सबूचा नवाज़ों, नक़ालों, यहां तक भाटों तक का ज़िक्र किया है जो शाही दरबार से बावस्ता थे.

हाथियों का ट्रैफ़िक जाम

उस दौर में नृत्य भी क्यों पीछे रहता? नूर बाई का पहले ज़िक्र आ चुका है. 

उस के बालाख़ाने के आगे अमीरों और प्रभावशाली लोगों के हाथियों का वो हुजूम होता था कि ट्रैफ़िक जाम हो जाता. 

मरक़ए दिल्ली में लिखा है, "जिस किसी को उसकी महफ़िल का चस्का लगा उसका घर बर्बाद हुआ और जिस दिमाग़ में उसकी दोस्ती का नशा समाया वो बगुले की तरह चक्कर काटता रहता. एक दुनिया ने अपनी पुंजी खपा दी और अनगिनत लोगों ने उस काफ़िर की खातिर सारी दौलत लुटा दी."

नूर बाई ने नादिर शाह से भी संबंध बना लिए थे. और बहुत संभव है कि ऐसी ही किसी एकांत की मुलाक़ात में उसने कोहेनूर का राज़ नादिर शाह पर खोल दिया. 

यहां ये बता देना ज़रूरी है कि ये वाक़या ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहासकार थियो मैटकॉफ़ ने कोहेनूर के बारे में किताब में बताया है, हालांकि कई इतिहासकार इस पर शक़ भी ज़ाहिर करते हैं.

इसके बावजूद ये इस क़दर मशहूर है कि हिंदुस्तान की सामूहिक याद्दाश्त का हिस्सा बन गया है.

दरग़ाह क़ुली ख़ान एक और तवायफ़ अद बेग़म का हैरतअंगेज़ अहवाल कुछ यूं बयां करते हैं-

"अद बेग़मः दिल्ली की मशहूर बैग़म हैं जो पायजामा नहीं पहनती, बल्कि अपने बदन के निचले हिस्से पर पायजामों की तरह फूल-पत्तियां बना लेती हैं. ऐसी फूल-पत्तियां बनाती हैं जो बुने हुए रोमन थान में होती हैं. इस तरह वो अमरीकों की महफ़िल में जाती हैं और कमाल ये है कि पायजामे और उस नक़्क़ाशी में कोई फ़र्क़ नहीं कर पाता. जब तक उस राज़ से पर्दा ना उठे कोई उनकी कारीगरी को नहीं भांप सकता."

ये मीर तक़ी मीर की जवानी का ज़माना था. क्या अजब की ये शेर उन्होंने अद बेग़म ही से प्रभावित होकर कहा हो-

जी फट गया है रश्क से चसपां लिबास के
क्या तंग जामा लिपटा है उसके बदन के साथ

इस दौरान मोहम्मद शाह के दिन और रात का हाल ये थाः सुबह के वक़्त झरोखा दर्शन में जाकर बटेरों या हाथियों की लड़ाइयों से दिल बहलाना. 

उस दौरान कभी कोई फ़रयादी आ गया तो उसकी परेशानी भी सुन लेना. दोपहर के वक़्त बाज़ीगरों, नटों, नक़ालों और भांटों की कला से आनंद उठाना, शामें नृत्य और संगीत से और रातें....

बादशाह को एक और शौक़ भी था. वो अकसर जनाना लिबास पहनना पसंद करते थे और बदन पर रेशमी पशवाज़ पहनकर दरबार में आ जाते. 

उस वक़्त उनके पांव में मोती जड़े जूते हुआ करते थे. अलबत्ता किताबों में लिखा है कि नादिर शाह के हमले के बाद वो ज़्यादातर सफ़ेद लिबास पर ही संतोष करने लगे थे.

मुग़ल कला चित्रकारी जो औरंगज़ेब के दौर में मुरझा गई थी अब पूरी चमक से खुलकर सामने आई. 

उस दौर के मशहूर चित्रकारों में निधा मल और चित्रमन के नाम शामिल हैं जिनके चित्र मुग़लिया चित्रकारी के सुनहरे दौर के कलाकारों के मुक़ाबले पर रखे जा सकते हैं.

शाहजहां के बाद पहली बार दिल्ली में मुग़ल चित्रकारों का दबस्तान दोबारा जारी हुआ. उस शैली की विशेषताओं में हल्के रंगों का इस्तेमाल अहम हैं. 

उस के अलावा पहले दौर के मुग़लिया चित्रों में पूरा फ्रेम खचाखच भर दिया जाता था. 

मोहम्मद शाह के दौर में मंज़र में सादगी पैदा करने और खाली जगह रखने का रुझान पैदा हुआ जहां नज़र इधर उधर घूम फिर सके.

इसी दौर की एक मशहूर तस्वीर वो है जिसमें ख़ुद मोहम्मद शाह रंगीला को एक कनीज़ से सेक्स करते दिखाया गया है. 

कहा जाता था कि दिल्ली में अफ़वाह फैल गई थी कि बादशाह नामर्द है, जिसे दूर करने के लिए इस तस्वीर का सहारा लिया गया. इसे आज लोग 'पॉर्न आर्ट' की श्रेणी में रखते हैं.

सोने की चिड़िया

ऐसे में सत्ता कैसे चलती और कौन चलाता? अवध, बंगाल और दक्कन जैसे उपजाऊ और मालदार सूबों के नवाब अपने-अपने इलाक़ों के बादशाह बन बैठे. 

उधर, दक्षिण में मराठों ने दामन खींचना शुरू कर दिया और सल्तनत-ए-तैमूरिया के बखिए उधड़ने शुरू हो गए लेकिन सल्तनत के लिए सब से बड़ा ख़तरा पश्चिम से नादिर शाह की शक्ल में शामत-ए-आमाल की तरह नमूदार हुआ और सबकुछ तार-तार कर गया. 

नादिर शाह ने हिंदुस्तान पर हमला क्यों किया शफ़ीक़ुर्रहमान ने अपनी शाहकार तहरीर 'तुज़के नादरी' इसकी कई वजहें बयान की हैं. 

मसलन हिंदुस्तान के गवैये 'नादरना धीम-धीम' कर के हमारा मज़ाक उड़ाते हैं, या फिर ये कि 'हम तो हमला करने नहीं बल्की अपनी फूफी जान से मुलाक़ात करने आए थे.' मज़ाक अपनी जगह, असल सबब सिर्फ़ दो थे.

पहलाः हिंदुस्तान सैन्य लिहाज़ से कमज़ोर था. दूसराः माल और दौलत से भरा हुआ था.

गिरावट के बावजूद अब भी काबुल से लेकर बंगाल तक मुग़ल शहंशाह का सिक्का चलता था और उसकी राजधानी दिल्ली उस समय दुनिया का सबसे बड़ा शहर था जिसकी बीस लाख नफ़ूस पर शामिल आबादी लंदन और पेरिस की संयुक्त आबादी से ज़्यादा थी, और उसका शुमार दुनिया के अमीर तरीन शहरों में किया जाता था.

इसलिए नादिर शाह 1739 में हिंदुस्तान जाने के मशहूर रास्ते ख़ैबर दर्रे को पार करके हिंदुस्तान में दाख़िल हो गया. कहा जाता है कि मोहम्मद शाह को जब भी बताया जाता कि नादिर शाह की फौजे आगे बढ़ रही हैं तो वो यही कहताः- 'हनूज़ दिल्ली दूर अस्त यानी अभी दिल्ली बहुत दूर है, अभी से फ़िक्र की क्या बात है.'

जब नादिर शाह दिल्ली से सौ मील दूर पहुंच गया तो मुग़ल शहंशाह को ज़िंदगी में पहली बार अपनी फौजों का नेतृत्व स्वंय करना पड़ा. यहां भी हालात ऐसे की उनके लश्कर की कुल तादाद लाखों में थी, जिसका बड़ा हिस्सा बावर्चियों, संगीतकारों, कुलियों, सेवकों, खजांचियों और दूसरे नागरिक कर्मचारियों का था जबकि लड़ाका फौज एक लाख से कुछ ही ऊपर थी.

उसके मुक़ाबले पर ईरानी फौज सिर्फ़ 55 हज़ार की थी. लेकिन कहां जंगों में पले नादिर शाही लड़ाका दस्ते और कहां हंसी खेल में धुत मुग़ल सिपाही. करनाल के मैदान में सिर्फ़ तीन घंटों में फैसला हो गया और नादिर शाह मोहम्मद शाह को क़ैदी बनाकर दिल्ली के विजेता की हैसियत से शहर में दाख़िल हुआ. 

क़त्ल-ए-आम

अगले दिन इद-उल-जुहा थी. दिल्ली की मस्जिदों में नादिर शाह के नाम का खुतबा पढ़ा गया और टकसालों में उसके नाम के सिक्के ढाले जाने लगे. 

अभी चंद ही दिन गुज़रे थे कि शहर में अफ़वाह फैल गई कि एक तवायफ़ ने नादिर शाह को क़त्ल कर दिया है. 

दिल्ली के लोगों ने इससे सह पाकर शहर में तैनात ईरानी सैनिकों क़त्ल करना शुरू कर दिया. इसके बाद जो हुआ वो इतिहास के पन्नों पर कुछ यूं बयां हैं-

"सूरज की किरण अभी अभी पूर्वी आसमान फूटी ही थीं कि नादिर शाह दुर्रानी अपने घोड़े पर सवार लाल क़िले से निकल आया. उसका बदन ज़र्रा-बक़्तर से ढका हुआ, सर पर लोहे का कवच और कमर पर तलवार बंधी हुई थी और कमांडर और जरनैल उनके साथ थे. उसका रुख आधा मील दूर चांदनी चौक में मौजूद रोशनउद्दौला मस्जिद की ओर था. मस्जिद के बुलंद सहन में खड़े हो कर उसने तलवार मयान से निकाल ली."

ये उसके सिपाहियों के लिए इशारा था. सुबह के नौ बजे क़त्ल-ए-आम शुरू हुआ. कज़लबाश सिपाहियों ने घर-घर जाकर जो मिला उसे मारना शुरू कर दिया. 

इतना ख़ून बहा कि नालियों के ऊपर से बहने लगा. लाहौरी दरवाज़ा, फ़ैज़ बाज़ार, काबुली दरवाज़ा, अजमेरी दरवाज़ा, हौज़ क़ाज़ी और जौहरी बाज़ार के घने इलाक़े लाशों से पट गए. 

हज़ारों औरतों का बलात्कार किया गया, सैकड़ों ने कुओं में कूद कूद कर के अपनी जान दे दी. कई लोगों ने ख़ुद अपनी बेटियों और बीवीयों को क़त्ल कर दिया कि वो ईरानी सिपाहियों के हत्थे न चढ़ जाएं. 

अकसर इतिहास के हवालों के मुताबिक उस दिन तीस हज़ार दिल्ली वालों को तलवार के घाट उतार दिया गया. आख़िर मोहम्मद शाह ने अपने प्रधानमंत्री को नादिर शाह के पास भेजा. कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नंगे पांव और नंगे सिर नादिर शाह के सामने पेश हुए और ये शेर पढ़ा-

'दीगर नमाज़दा कसी ता बा तेग़ नाज़ कशी... मगर कह ज़िंदा कनी मुर्दा रा व बाज़ क़शी'

(और कोई नहीं बचा जिसे तू अपनी तलवार से क़त्ल करे...सिवाए इसके कि मुर्दा को ज़िंदा करे और दोबारा क़त्ल करे.)

इस पर कहीं जाकर नादिर शाह ने तलवार दोबारा म्यान में डाली तब कहीं जाकर उसके सिपाहियों ने हाथ रोका.

क़त्ल-ए-आम बंद हुआ तो लूटमार का बाज़ार खुल गया. शहर के अलग-अलग हिस्सों में बांट दिया गया और फौज की ड्यूटी लगा दी गई कि वो वहां से जिस क़दर हो सके माल लूट ले. जिस किसी ने अपनी दौलत छुपाने की कोशिश की उसे बहुत बुरी तरह प्रताड़ित किया गया.

जब शहर की सफ़ायी हो गई तो नादिर शाह ने शाही महल की ओर रुख किया. उस का ब्यौरा नादिर शाह के दरबार में इतिहासकार मिर्ज़ा महदी अस्त्राबादी ने कुछ यूं बयां किया है-

'चंद दिनों के अंदर अंदर मज़दूरों को शाही खजाना खाली करने का हुक़्म दिया गया. यहां मोतियों और मूंगों के समंदर थे, हीरे, जवाहरात, सोने चांदी के खदाने थीं, जो उन्होंने कभी ख़्वाब में भी नहीं देखीं थीं. हमारे दिल्ली में क़याम के दौरान शाही खजाने से करोड़ों रुपए नादिर शाह के खजाने में भेजे गए. दरबार के उमरा, नवाबों, राजाओं ने कई करोड़ सोने और जवाहरात की शक्ल में बतौर फिरौती दिए.'

एक महीने तक सैकड़ों मज़दूर सोने चांदी के जवाहरात, बर्तनों और दूसरे सामान को पिघलाकर ईंटे ढालते रहे ताक़ि उन्हें ईरान ढोने में आसानी हो.

शफ़ीक़ुर्रहमान 'तुज़क-ए-नादरी' में इसका वर्णन विस्तार से करते हैं. 'हम ने कृपा की प्रतीक्षा कर रहे मोहम्मद शाह को इजाज़त दे दी कि अगर उसकी नज़र में कोई ऐसी चीज़ है जिसको हम बतौर तोहफ़ा ले जा सकते हों और ग़लती से याद न रही हो तो बेशक़ साथ बांध दे. लोग दहाड़े मार-मार कर रो रहे थे और बार बार कहते थे कि हमारे बग़ैर लाल क़िला खाली खाली सा लगेगा. ये हक़ीक़त थी कि लाल क़िला हमें भी खाली खाली लग रहा था.'

नादिर शाह ने कुल कितनी दौलत लूटी? इतिहासकारों के एक अनुमान के मुताबिक उस की मालियत उस वक़्त के 70 करोड़ रुपए थी जो आज के हिसाब से 156 अरब डॉलर बनते हैं. यानी दस लाख पचास हज़ार करोड़ रुपए. ये मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी सशस्त्र डकैती थी.

उर्दू शायरी का सुनहरा दौर

मुग़लों की दरबारी और सरकारी ज़बान फ़ारसी थी. लेकिन जैसे जैसे दरबार की गिरफ़्त आम लोगों की ज़िंदगी पर ढीली पड़ती गई, लोगों की ज़बान यानी उर्दू उभरकर ऊपर आने लगी. बिलकुल ऐसे ही जैसे बरगद की शाख़ें काट दी जाएं तो उसके नीचे दूसरे पौधों को फलने फूलने का मौक़ा मिल जाता है. इसलिए मोहम्मद शाह रंगीला के दौर को उर्दू शायरी का सुनहरा दौर कहा जा सकता है.

उस दौर की शुरूआत ख़ुद मोहम्मद शाह के तख़्त पर बैठते ही हो गई थी जब बादशाह के साल-ए-जुलूस यानी 1719 में वली दक्कनी का दीवान दक्कन से दिल्ली पहुंचा. उस दीवान ने दिल्ली के ठहरे हुए अदबी झील में ज़बरदस्त तलातुम पैदा कर दिया और यहां के लोगों को पहली बार पता चला कि उर्दू (जिसे उस ज़माने में रेख़्ता, हिंदी या दक्कनी कहा जाता था) में यूं भी शायरी हो सकती है. 

देखते ही देखते उर्दू शायरी की पनीरी तैयार हो गई, जिन में शाकिर नाजी, नज़मउद्दीन अबूर, शदफ़उद्दीन मज़मून और शाह हातिम वगैरा के नाम अहम हैं.

उन्हीं शाह हातिम के शागिर्द मिर्ज़ा रफ़ी सौदा हैं, जिनसे बेहतर क़सीदा निगार उर्दू आज तक पैदा नहीं कर सकी. सौदा के ही समकालीन मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल का मुक़ाबला आज तक नहीं मिल सका. उसी दौर की दिल्ली में एक तरफ़ मीर दर्द की ख़ानक़ाह हैं, वही मीर दर जिन्हें आज भी उर्दू का सबसे बड़ा सूफ़ी शायर माना जाता है. उसी अहद में मीर हसन परवान चढ़े जिन की मसनवी 'सहर-उल-बयान' आज भी अपनी मिसाल आप है.

यही नहीं बल्कि उस दौरान पनपने वाले 'दूसरे दर्जे' के शायरों में भी ऐसे नाम शामिल हैं जो उस ज़माने में धुंधला गए लेकिन किसी दूसरे दौर में होते तो चांद बन कर चमकते. उनमें मीर सौज़, क़ायम चांदपुरी, मिर्ज़ा ताबिल और मीर ज़ाहक वग़ैरा शामिल हैं.

अंजाम

बेतहाशा शराब पीने और अफ़ीम की लत ने मोहम्मद शाह को अपनी सल्तनत ही की तरह अंदर से खोखला कर दिया था. इसीलिए उन की उम्र छोटी ही रही. 

अभी 46 ही को पहुंचे थे कि एक दिन अचानक ग़ुस्से का दौरा पड़ा. उन्हें उठाकर हयात बख़्श बाग़ भेज दिया गया, लेकिन ये बाग़ भी बादशाह की ज़िंदगी की घड़ियां लंबी नहीं कर सका और वो सारी रात बेहोश रहने के बाद अगले दिन चल बसे. उन्हें निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार में अमीर ख़ुसरो के बराबर में दफ़न किया गया. 

ये अप्रैल की 15 तारीख़ थी और साल था 1748. एक लिहाज़ से ये मोहम्मद शाह के लिए अच्छा ही हुआ क्योंकि इसी साल नादिर शाह के एक जरनल अहमद शाह अब्दाली ने हिंदुस्तान पर हमलों की शुरुआत कर दी थी. 

ज़ाहिर है कि बाबर, अकबर या औरंगज़ेब के मुक़ाबले मोहम्मद शाह कोई फौजी जरनल नहीं था और नादिर शाह के ख़िलाफ़ करनाल के अलावा उसने किसी जंग में सेना का नेतृत्व नहीं किया था. न ही उनमें जहांबानी व जहांग़ीर की वो ताक़त और ऊर्जा मौजूद थी जो पहले मुग़लों का ख़ासा थी. वो मर्द-ए-अमल नहीं बल्कि मर्द-ए-महफिल थे और अपने परदाता औरंगज़ेब के मुक़ाबले में युद्ध की कला से ज़्यादा लतीफ़े की कला के प्रेमी थे. 

क्या मुग़ल सल्तनत के पतन की सारी ज़िम्मेदारी मोहम्मद शाह पर डाल देना सही है? हमारे ख़्याल से ऐसा नहीं है. ख़ुद औरंगज़ेब ने अपनी कट्टर सोच, कठोर प्रशासन और बिना वजह सेना बढ़ाने से तख़्त के पांव में दीमक लगाना शुरू कर दी थी. 

जिस तरह सेहतमंद शरीर को संतुलित भोजन की ज़रूरत होती है, वैसे ही सेहतमंद समाज के लिए ज़िंदा दिली और ख़ुश तबियत इतनी ही ज़रूरी है जितनी ताक़तवर फौज. औरंगज़ेब ने तलवार के पलड़े पर ज़ोर डाला तो पड़पौते ने हुस्न और संगीत वाले पर. नतीजा वही निकलना था जो सबके सामने है.

ये सब कहने के बावजूद प्रतिकूल हालात, बाहरी हमलों और ताक़तवर दरबारियों की साज़िशों के दौरान मुग़ल सल्तनत की बिखरी हुई चीज़ों को संभालकर रखना ही मोहम्मद शाह की सियासी कामयाबी का सबूत है. उनसे पहले सिर्फ़ दो मुग़ल बादशाह अकबर और औरंगज़ेब ही हुए हैं जिन्होंने मोहम्मद शाह से लंबी हकूमत की. दूसरी तरफ़ मोहम्मद शाह को आख़िरी ताक़तवर मुग़ल बादशाह भी कहा जा सकता है. वरना उसके बाद आने वाले बादशाहों की हैसित दरबारियों, रोहीलों, मराठों और आख़ीर में अंग्रेज़ों की कठपुतलियों से ज़्यादा कुछ नहीं थी.

सारी रंगीनियां और रंगरेलियां अपनी जगह, मोहम्मद शाह रंगीला ने हिंदुस्तान की गंगा जमनी तहज़ीब और कलाओं को बढ़ावा देने में जो किरदार अदा किया उसे नज़रअंदाज़ करना नाइंसाफ़ी होगी.

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