दिल्ली की बावलियाँ
Step-wells of Delhi (History of Delhi)
अब तो कुएं भी बमुश्किल मिलते हैं, पहले के समय में बावलियां होती थीं। ये गहरे कुएं होते थे जिनमें पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनाई जाती थीं। अब ये इस्तेमाल में नहीं आते और जो बचे भी हैं वे अब ऐतिहासिक हो चुकी हैं व उनकी देख-रेख की कमान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के हाथ में है। आज दिल्ली की देहरी में बात उन बावलियों की जिन्होंने दिल्ली के इतिहास व यहां की बेजोड़ कारीगरी को अपने अंदर बसाया हुआ है।
किसी समय में राजधानी में करीब सौ बावलियां होती थीं लेकिन आज के दौर में केवल दो दर्जन बावलियां ही शेष हैं।
दिल्ली की सबसे पुरानी बावली, गंधक-बावली
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक “दिल्ली और उसका अंचल” के अनुसार, महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं, जिनमें दूसरों की तुलना में दो अधिक प्रसिद्व हैं। तथा-कथित गंधक की बावली, जिसके पानी में गंधक की गंध है, अधम खां के मकबरे से लगभग 100 मीटर दक्षिण में स्थित हैं। गंधक की बावली पानी प्रचुर मात्रा में सल्फर पाए जाने के कारण गंधक की बावली कहलाती है। यह विश्वास किया जाता है कि इसे गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुमिश (1211-36) के शासनकाल में बनवाया गया था।
इसके दक्षिण छोर पर एक गोलाकार कुंए सहित इसकी पांच मंजिलें हैं। यह गोता लगाने वाला कुंआ भी कहलाता है क्योंकि गोताखोर दर्शकों के मनोरंजन के लिए ऊपर की मंजिलों से इसमें छलांग लगाते हैं। इस काम को करने वालों के लिए यह नियमित आय का साधन था। महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है” में लिखा है कि इस बावली में लोग अपनी त्वचा के रोगों के उपचार के लिए भी नहाते थे और उसका पानी बोतलों और शीशियों में भरकर घर भी ले जाते थे।
आदित्य अवस्थी की पुस्तक “नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली” के अनुसार, यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 133 फीट लंबी और करीब 35 फीट चौड़ी है। इस इमारत में पानी तक पहुंचने के लिए 105 सीढ़ियां हैं। बावड़ी के ऊपरी हिस्से में सजावटी पत्थर लगे हुए हैं। सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि इस बावड़ी के तहत करीब 2,200 वर्गमीटर का क्षेत्र आता है। अब यह क्षेत्र कितना बचा है, यह तो इसे देखनेवाले ही जान-समझ सकते हैं। यह गंधक की बावली वर्श 1975 में सूख गई थी। फिर साफ सफाई की गई और इस इलाके में जल संचयन पर ध्यान दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसमें फिर से पानी आ गया। वर्तमान में इसकी देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जिम्मे है। इस साल (2017) दिल्ली विधानसभा ने दिल्ली की बावलियों विशय पर जल संरक्षण और प्रबंधन की इस प्राचीन और मध्यकालीन धरोहर को एक कैलेंडर में समेटा है, जिसमें राजधानी की चुनिंदा बावलियों का चित्रमय उल्लेख है।
वर्षा जल संचयन की हिंदू परंपरा का प्रतीक सूरजकुंड
हरियाणा के बल्लभगढ़ (अब बलरामगढ़, जिला फरीदाबाद) तहसील की सीमा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से लगी हुई है। अंग्रेजी साम्राज्य के दौर में यह इलाका दिल्ली का ही एक हिस्सा हुआ करता था। दिल्ली की इस इलाके से भौगोलिक संलग्नता के अलावा ऐसी मान्यता भी है कि यहां का इतिहास, दिल्ली का ही इतिहास है। “इंपीरियल गैजेटियर ऑफ इंडिया” खंड-एक उपर्युक्त मान्यता का ही प्रतिनिधित्व करता है-इस जिले का इतिहास, दिल्ली नगर का इतिहास है, जिसकी अधीनस्थता में वह अनंत काल से विद्यमान है। यहां तक कि बल्लभगढ़ और फरीदाबाद जैसे शहरों का भी अपना कोई अलग स्थानीय इतिहास नहीं है, क्योंकि नगर (दिल्ली) की भव्य पुरातनता की निशानियां इन्हीं इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में बिखरी पड़ी हैं।
दिल्ली के इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा एक ऐसा ही जलाशय है। जिला गुड़गांव में तुगलकाबाद से लगभग तीन किलोमीटर दक्षिण पूर्व में सूरजकुंड है। इस जलाशय को तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने, जिसका अस्तित्व भाट परंपरा पर आधारित है, दसवीं शताब्दी में निर्मित करवाया था। चट्टानों की दरारों से रिसने वाले ताजे पानी का तालाब, जिसे सिद्ध-कुंड कहते हैं, सूरज कुंड के दक्षिण में लगभग 600 मीटर पर स्थित है और कुछ धार्मिक पर्वों पर यहां बहुत बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं। ‘कुंड’ संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘कुंड’ का मतलब है तालाब या गड्ढा, जिसे बनाया गया हो। कुंड हमेशा मानव निर्मित ही हो सकता है। हिंदू मंदिरों और गुरूद्वारों के साथ कुंड और तालाब बनाए जाने की परंपरा रही हैं।
यह निर्माण पहाड़ियों से आने वाले वर्षा के पानी की एकत्र करने के लिए एक अर्ध गोलाकार रूपरेखा के आधार पर सीढ़ीदार पत्थर के बांध के रूप में हैं। यह कुंड इस तरह बना है कि आसपास की पहाड़ियों से बरसात के दौरान गिरानेवाला पानी बहकर इस कुंड में स्वतः ही इकट्ठा हो जाता था। इस कुंड से पानी के इस्तेमाल के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई थीं। कुंड में पानी की स्थिति के अनुसार इन सीढ़ियों से होकर पानी तक आया-जाया जा सकता है। जानवरों को पानी पिलाने के लिए एक अलग रास्ता बनाया गया था। सूरजकुंड और दिल्ली में बनाई गई बावड़ियों में एक ही समानता कही जा सकती है और वह है पानी तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियां।
इसके पश्चिम में सूर्य का एक मंदिर था जिसके कुछ नक्काशीयुक्त पत्थरों को हाल ही में जलाशय से फिर प्राप्त किया गया है अथवा जिनका बाद के निर्माणों में दोबारा इस्तेमाल किया गया है। अब इस मंदिर के अवशेष ही रह गए हैं इसलिए इस सूरजकुंड के मंदिर का अपने समय में क्या महत्व रहा होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। बाद में एक किला बन्द अहाता जिसे अभी तक गढ़ी कहा जाता है इस मंदिर के परंपरागत स्थल के आसपास पश्चिमी किनारे पर निर्मित किया गया। सूरजकुंड दिल्ली और उसके आसपास जल संरक्षण और संवर्धन का सबसे पुराना उदाहरण है। उस दौर में बने और अब तक बचे हुए प्रतीकों पर नजर डालें तो सूरजकुंड को अपने दौर में वर्षा जल संचयन का सबसे अनोखा उदाहरण कह सकते हैं।
हिंदू राव की बावली
उत्तरी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम की ओर से संचालित हिंदू राव अस्पताल के पश्चिमी प्रवेश द्वार के निकट एक बावड़ी बनी हुई है। सिविल लाइन्स क्षेत्र में हिंदू राव मार्ग पर बनी यह बावली कमला नेहरू रिज पर पीर गायब के दक्षिण पश्चिम में करीब 50 गज की दूरी पर है। इस बावली के निर्माण की अवधि 14 सदी के प्रारंभ में फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल के समय की मानी जाती है।
आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के स्वामित्व में संरक्षित इमारत के रूप में दर्ज यह बावली राजधानी में बनी सबसे विशाल बावलियों में से एक मानी जाती है। मूल रूप से इस बावली के चारों ओर कक्ष बने हुए थे।
पत्थरों की चिनाई वाली दीवार वाली यह बावली गहराई वाली एक संरचना है, जिसकी गहराई का सही आकलन, उसमें फैली भारी वनस्पति के कारण नहीं हुआ है। इस बावली की प्राकृतिक अवस्था भी अच्छी नहीं है यानी यह रखरखाव के अभाव में जीर्ण शीर्ण स्थिति में है। यह बावली चारों ओर से वनस्पति से इस कदर ढकी हुई है कि यह भूमि पर एक गड्ढे से अधिक नहीं प्रतीत होती है। टूट फूट हो जाने के कारण अब पूरी इमारत देख पाना संभव नहीं रह गया है।
मौलवी जफर हसन ने "दिल्ली के स्मारक: महान मुगलों और अन्य के स्थायी भव्यता" नामक अपनी पुस्तक के दूसरे खंड में इस बावली का उल्लेख किया है। जफर हसन ने उत्तर दिशा से आने वाली 193 मीटर लंबी एक सुरंग का उल्लेख किया है। 2.15 मीटर ऊंची इस सुरंग, जिसके बनने का उद्देश्य अज्ञात है, में हवा की आवाजाही के लिए उपयुक्त स्थान होने के साथ दरवाजे भी थे। अबुल फजल ने "आइना-ए-अकबरी" में लिखा है कि इस सुरंग से होकर फिरोजाबाद, यानी आज के फिरोजशाह कोटला से जहाजनुमा यानी उत्तरी रिज पर बनी इस इमारत की ओर आया-जाया जा सकता था। यहां पर सुरंग बने होने के तो प्रमाण आज भी है।
अनंगताल बावली
दिल्ली की सबसे पुरानी बावली अनंगताल बावली कुतुबमीनार के पास बनी हुई है। दसवीं शताब्दी में तोमर वंश के राजपूत राजा अनंग पाल द्वितीय ने इसे बनवाया था। महरौली स्थित लौह स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि अनंग पाल द्वितीय ने दिल्ली को बसाया और लालकोट को वर्ष 1052-1060 के बीच बनवाया। अंग्रेज़ इतिहासकार ए. कनिंघम के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के समय अलाई मीनार के निर्माण के दौरान मोर्टार के लिए पानी अनंगताल से मंगवाया जाता था।
यही कारण लगता है कि परवर्ती शासकों ने भी महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं।
उपिन्दर सिंह की पुस्तक “दिल्लीः प्राचीन इतिहास” के अनुसार, अनंगताल के ऊपरी हिस्से का आंशिक रूप से दक्षिण-पश्चिमी कोना ही दिखलाई पड़ता है। इस खुले भाग को देखने से यह लगता है कि यहां किसी प्रकार की सीढ़ीनुमा सरंचना थी या घेरनेवाली दीवार, जो कुंड के चैड़े और लंबे चबूतरे से जुड़ी थी। इस संरचना से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके मूल प्रारूप में अनंगपाल द्वितीय ने कालांतर में परिवर्तन किया था। चूने के क्रंकीट प्लास्टर के बने चौड़े चबूतरे को लोहे के शिकंजे से आधे तराशे गए शिलाखंडों को जोड़ कर मजबूती दी गई थी और इसके ठीक ऊपर की सीढ़ी के किनारे की दीवार को लोहे के शिकंजे से कसा गया था।
राजपूत काल में ताल के निर्माण में विशेष रूप से कारीगरी के उत्कीर्ण निशानवाले शिलाखंड लगाए गए थे। इन पर की गई कारीगरी में स्वास्तिक, त्रिशूल, चार भाग में बंटे वृत्त, नगाड़े अंक, अक्षर, वृश्चिक, और तीर-धनुष के निशान देखे जा सकते हैं जो इस काल के ही मध्यप्रदेश के भोजपुर के एक मंदिर में पाए गा हैं।
ऐसे ही निशान कुतुब के पास कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के पुनप्रयुक्त पत्थर की पट्टियों पर मौजूद हैं। इन शिलाखंडों में से एक पर नागरी लिपि में उत्कीर्ण ‘पिनासी’ नाम मिला है। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि यह ताल ग्यारहवीं सदी के मध्य में अनंगपाल द्वितीय द्वारा बनवाया गया जिसका नाम इसके साथ-साथ चर्चा में आता है।
- नलिन चौहान
https://www.gaonconnection.com/mehfil/the-historical-bawlis-of-delhi-and-their-history-article-by-nalin-chauhan
अब तो कुएं भी बमुश्किल मिलते हैं, पहले के समय में बावलियां होती थीं। ये गहरे कुएं होते थे जिनमें पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनाई जाती थीं। अब ये इस्तेमाल में नहीं आते और जो बचे भी हैं वे अब ऐतिहासिक हो चुकी हैं व उनकी देख-रेख की कमान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के हाथ में है। आज दिल्ली की देहरी में बात उन बावलियों की जिन्होंने दिल्ली के इतिहास व यहां की बेजोड़ कारीगरी को अपने अंदर बसाया हुआ है।
किसी समय में राजधानी में करीब सौ बावलियां होती थीं लेकिन आज के दौर में केवल दो दर्जन बावलियां ही शेष हैं।
दिल्ली की सबसे पुरानी बावली, गंधक-बावली
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक “दिल्ली और उसका अंचल” के अनुसार, महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं, जिनमें दूसरों की तुलना में दो अधिक प्रसिद्व हैं। तथा-कथित गंधक की बावली, जिसके पानी में गंधक की गंध है, अधम खां के मकबरे से लगभग 100 मीटर दक्षिण में स्थित हैं। गंधक की बावली पानी प्रचुर मात्रा में सल्फर पाए जाने के कारण गंधक की बावली कहलाती है। यह विश्वास किया जाता है कि इसे गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुमिश (1211-36) के शासनकाल में बनवाया गया था।
इसके दक्षिण छोर पर एक गोलाकार कुंए सहित इसकी पांच मंजिलें हैं। यह गोता लगाने वाला कुंआ भी कहलाता है क्योंकि गोताखोर दर्शकों के मनोरंजन के लिए ऊपर की मंजिलों से इसमें छलांग लगाते हैं। इस काम को करने वालों के लिए यह नियमित आय का साधन था। महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है” में लिखा है कि इस बावली में लोग अपनी त्वचा के रोगों के उपचार के लिए भी नहाते थे और उसका पानी बोतलों और शीशियों में भरकर घर भी ले जाते थे।
आदित्य अवस्थी की पुस्तक “नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली” के अनुसार, यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 133 फीट लंबी और करीब 35 फीट चौड़ी है। इस इमारत में पानी तक पहुंचने के लिए 105 सीढ़ियां हैं। बावड़ी के ऊपरी हिस्से में सजावटी पत्थर लगे हुए हैं। सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि इस बावड़ी के तहत करीब 2,200 वर्गमीटर का क्षेत्र आता है। अब यह क्षेत्र कितना बचा है, यह तो इसे देखनेवाले ही जान-समझ सकते हैं। यह गंधक की बावली वर्श 1975 में सूख गई थी। फिर साफ सफाई की गई और इस इलाके में जल संचयन पर ध्यान दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसमें फिर से पानी आ गया। वर्तमान में इसकी देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जिम्मे है। इस साल (2017) दिल्ली विधानसभा ने दिल्ली की बावलियों विशय पर जल संरक्षण और प्रबंधन की इस प्राचीन और मध्यकालीन धरोहर को एक कैलेंडर में समेटा है, जिसमें राजधानी की चुनिंदा बावलियों का चित्रमय उल्लेख है।
वर्षा जल संचयन की हिंदू परंपरा का प्रतीक सूरजकुंड
हरियाणा के बल्लभगढ़ (अब बलरामगढ़, जिला फरीदाबाद) तहसील की सीमा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से लगी हुई है। अंग्रेजी साम्राज्य के दौर में यह इलाका दिल्ली का ही एक हिस्सा हुआ करता था। दिल्ली की इस इलाके से भौगोलिक संलग्नता के अलावा ऐसी मान्यता भी है कि यहां का इतिहास, दिल्ली का ही इतिहास है। “इंपीरियल गैजेटियर ऑफ इंडिया” खंड-एक उपर्युक्त मान्यता का ही प्रतिनिधित्व करता है-इस जिले का इतिहास, दिल्ली नगर का इतिहास है, जिसकी अधीनस्थता में वह अनंत काल से विद्यमान है। यहां तक कि बल्लभगढ़ और फरीदाबाद जैसे शहरों का भी अपना कोई अलग स्थानीय इतिहास नहीं है, क्योंकि नगर (दिल्ली) की भव्य पुरातनता की निशानियां इन्हीं इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में बिखरी पड़ी हैं।
दिल्ली के इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा एक ऐसा ही जलाशय है। जिला गुड़गांव में तुगलकाबाद से लगभग तीन किलोमीटर दक्षिण पूर्व में सूरजकुंड है। इस जलाशय को तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने, जिसका अस्तित्व भाट परंपरा पर आधारित है, दसवीं शताब्दी में निर्मित करवाया था। चट्टानों की दरारों से रिसने वाले ताजे पानी का तालाब, जिसे सिद्ध-कुंड कहते हैं, सूरज कुंड के दक्षिण में लगभग 600 मीटर पर स्थित है और कुछ धार्मिक पर्वों पर यहां बहुत बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं। ‘कुंड’ संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘कुंड’ का मतलब है तालाब या गड्ढा, जिसे बनाया गया हो। कुंड हमेशा मानव निर्मित ही हो सकता है। हिंदू मंदिरों और गुरूद्वारों के साथ कुंड और तालाब बनाए जाने की परंपरा रही हैं।
यह निर्माण पहाड़ियों से आने वाले वर्षा के पानी की एकत्र करने के लिए एक अर्ध गोलाकार रूपरेखा के आधार पर सीढ़ीदार पत्थर के बांध के रूप में हैं। यह कुंड इस तरह बना है कि आसपास की पहाड़ियों से बरसात के दौरान गिरानेवाला पानी बहकर इस कुंड में स्वतः ही इकट्ठा हो जाता था। इस कुंड से पानी के इस्तेमाल के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई थीं। कुंड में पानी की स्थिति के अनुसार इन सीढ़ियों से होकर पानी तक आया-जाया जा सकता है। जानवरों को पानी पिलाने के लिए एक अलग रास्ता बनाया गया था। सूरजकुंड और दिल्ली में बनाई गई बावड़ियों में एक ही समानता कही जा सकती है और वह है पानी तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियां।
इसके पश्चिम में सूर्य का एक मंदिर था जिसके कुछ नक्काशीयुक्त पत्थरों को हाल ही में जलाशय से फिर प्राप्त किया गया है अथवा जिनका बाद के निर्माणों में दोबारा इस्तेमाल किया गया है। अब इस मंदिर के अवशेष ही रह गए हैं इसलिए इस सूरजकुंड के मंदिर का अपने समय में क्या महत्व रहा होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। बाद में एक किला बन्द अहाता जिसे अभी तक गढ़ी कहा जाता है इस मंदिर के परंपरागत स्थल के आसपास पश्चिमी किनारे पर निर्मित किया गया। सूरजकुंड दिल्ली और उसके आसपास जल संरक्षण और संवर्धन का सबसे पुराना उदाहरण है। उस दौर में बने और अब तक बचे हुए प्रतीकों पर नजर डालें तो सूरजकुंड को अपने दौर में वर्षा जल संचयन का सबसे अनोखा उदाहरण कह सकते हैं।
हिंदू राव की बावली
उत्तरी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम की ओर से संचालित हिंदू राव अस्पताल के पश्चिमी प्रवेश द्वार के निकट एक बावड़ी बनी हुई है। सिविल लाइन्स क्षेत्र में हिंदू राव मार्ग पर बनी यह बावली कमला नेहरू रिज पर पीर गायब के दक्षिण पश्चिम में करीब 50 गज की दूरी पर है। इस बावली के निर्माण की अवधि 14 सदी के प्रारंभ में फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल के समय की मानी जाती है।
आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के स्वामित्व में संरक्षित इमारत के रूप में दर्ज यह बावली राजधानी में बनी सबसे विशाल बावलियों में से एक मानी जाती है। मूल रूप से इस बावली के चारों ओर कक्ष बने हुए थे।
पत्थरों की चिनाई वाली दीवार वाली यह बावली गहराई वाली एक संरचना है, जिसकी गहराई का सही आकलन, उसमें फैली भारी वनस्पति के कारण नहीं हुआ है। इस बावली की प्राकृतिक अवस्था भी अच्छी नहीं है यानी यह रखरखाव के अभाव में जीर्ण शीर्ण स्थिति में है। यह बावली चारों ओर से वनस्पति से इस कदर ढकी हुई है कि यह भूमि पर एक गड्ढे से अधिक नहीं प्रतीत होती है। टूट फूट हो जाने के कारण अब पूरी इमारत देख पाना संभव नहीं रह गया है।
मौलवी जफर हसन ने "दिल्ली के स्मारक: महान मुगलों और अन्य के स्थायी भव्यता" नामक अपनी पुस्तक के दूसरे खंड में इस बावली का उल्लेख किया है। जफर हसन ने उत्तर दिशा से आने वाली 193 मीटर लंबी एक सुरंग का उल्लेख किया है। 2.15 मीटर ऊंची इस सुरंग, जिसके बनने का उद्देश्य अज्ञात है, में हवा की आवाजाही के लिए उपयुक्त स्थान होने के साथ दरवाजे भी थे। अबुल फजल ने "आइना-ए-अकबरी" में लिखा है कि इस सुरंग से होकर फिरोजाबाद, यानी आज के फिरोजशाह कोटला से जहाजनुमा यानी उत्तरी रिज पर बनी इस इमारत की ओर आया-जाया जा सकता था। यहां पर सुरंग बने होने के तो प्रमाण आज भी है।
अनंगताल बावली
दिल्ली की सबसे पुरानी बावली अनंगताल बावली कुतुबमीनार के पास बनी हुई है। दसवीं शताब्दी में तोमर वंश के राजपूत राजा अनंग पाल द्वितीय ने इसे बनवाया था। महरौली स्थित लौह स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि अनंग पाल द्वितीय ने दिल्ली को बसाया और लालकोट को वर्ष 1052-1060 के बीच बनवाया। अंग्रेज़ इतिहासकार ए. कनिंघम के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के समय अलाई मीनार के निर्माण के दौरान मोर्टार के लिए पानी अनंगताल से मंगवाया जाता था।
यही कारण लगता है कि परवर्ती शासकों ने भी महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं।
उपिन्दर सिंह की पुस्तक “दिल्लीः प्राचीन इतिहास” के अनुसार, अनंगताल के ऊपरी हिस्से का आंशिक रूप से दक्षिण-पश्चिमी कोना ही दिखलाई पड़ता है। इस खुले भाग को देखने से यह लगता है कि यहां किसी प्रकार की सीढ़ीनुमा सरंचना थी या घेरनेवाली दीवार, जो कुंड के चैड़े और लंबे चबूतरे से जुड़ी थी। इस संरचना से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके मूल प्रारूप में अनंगपाल द्वितीय ने कालांतर में परिवर्तन किया था। चूने के क्रंकीट प्लास्टर के बने चौड़े चबूतरे को लोहे के शिकंजे से आधे तराशे गए शिलाखंडों को जोड़ कर मजबूती दी गई थी और इसके ठीक ऊपर की सीढ़ी के किनारे की दीवार को लोहे के शिकंजे से कसा गया था।
राजपूत काल में ताल के निर्माण में विशेष रूप से कारीगरी के उत्कीर्ण निशानवाले शिलाखंड लगाए गए थे। इन पर की गई कारीगरी में स्वास्तिक, त्रिशूल, चार भाग में बंटे वृत्त, नगाड़े अंक, अक्षर, वृश्चिक, और तीर-धनुष के निशान देखे जा सकते हैं जो इस काल के ही मध्यप्रदेश के भोजपुर के एक मंदिर में पाए गा हैं।
ऐसे ही निशान कुतुब के पास कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के पुनप्रयुक्त पत्थर की पट्टियों पर मौजूद हैं। इन शिलाखंडों में से एक पर नागरी लिपि में उत्कीर्ण ‘पिनासी’ नाम मिला है। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि यह ताल ग्यारहवीं सदी के मध्य में अनंगपाल द्वितीय द्वारा बनवाया गया जिसका नाम इसके साथ-साथ चर्चा में आता है।
- नलिन चौहान
https://www.gaonconnection.com/mehfil/the-historical-bawlis-of-delhi-and-their-history-article-by-nalin-chauhan
Comments
Post a Comment